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________________ . जैन जगती PaNCORREcar * अतीत खण्ड कला-कौशल कितनी कलायें थीं हमारी पूर्व, हम बतला चुके; दश-चार विद्या-विज्ञ पूर्वज पार जिनका पा चुके । चौषठ-कलाविद थे पुरुष, सब थी कलाविद नारियें; कौशल-कला में देवियें थीं उस समय सुकुमारियें ॥ १६ ॥ शिल्प-कलाये सब कलायें आज केवल पुस्तकों में रह गई ! जब थे कलापति मर गये, सतिये कलायें हो गई ! कुछ खण्डहर में रह गई दब कर तथा भूगर्भ में ! दिपण बदन होकर पड़ी कुछ वक्र विकृत दर्भ में ! ।। २००॥ ये आपको भग्नांश, पेखो दूर से ही दीखते; हा ! हंत ! जिनमें चील कौवे निडर होकर चीखतं । जो अभ्र-भेदी थे कभी, वे आज रज में मिल गये; २१२ २१3 आख्यान माण्डव, लक्ष्मणी के हाय ! विस्मृत हो गये ।। २०१॥ सुरकेत अर्बुद२१४ शृङ्ग के, गिरिनार२१५ पर्वत के अहो ! तारंग२१६ पर्वत, सिद्ध५१७ गिरि के चैत्य हैं कैसे कहो! सम्मेत शेखर २१८ के अभी भी चैत्यगृह सब हैं नये !वर्षा सहस्रों झेल कर यों रह सके कितने नये ? ॥२०२ ॥ उदयाद्रि का अरु खण्डगिरि का नाम तो होगा सुना; कैसे कलामय स्थान हैं, यह भी गया होगा सुना। ऐलोर२२१, ऐजेंटा गुफायें ऐतिहासिक चीज हैं; ये कर-कला के कोष हैं, ये सुर-विनिर्मित चीज हैं ।। २०३ ।। २१०
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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