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________________ छ जैन जगती ॐ अतीत खण्ड 8 PRIORRECE चरित्रजीवन-चरित्रों को कमी भी है न कुछ हमको यहाँ हो श्रेष्ठ पुरुषों की कमी तो हो कमी इनकी यहाँ । जीवन, कथानक, रास से साहित्य-गृह भरपूर है; हमको दिखाने के लिये पथ तिमिर में ये सूर हैं ॥१८४ ॥ अवकाश तुमको है नहीं, हा ! हो नहीं फिर भी कभी; पर मात्र कहने से हमारे तनिक तो सुन लो अभी। त्रयपठ-शलाका-चरित'९० मौलिक चिर पुरातन ग्रंथ है। पौराण, रामायण, महाभारत व गीता ग्रंथ है ।। १८५॥ नीतिसत्र नीतियों का मर्म चाहो, नीति अर्हत् १९१ पेख लो; मनुनीति से भी अधिक इसमें नीति-वर्णन लेखलो । यही मजमूआ-मोजदारी, हिन्द-ताजीरात था; कानून सायर था यही, कानून सूमी ख्यात था । १८६॥ नाटकजिनराज, मुनि, आचार्य को जब पात्र कर सकते नहीं; ऐसी दशा में नाट्य-रचना क्या कठिन होती नहीं? धर्माभ्युदय ९२, विक्रांत' ९३ कौरव, मैथिली कल्याण' ९४ सेफिर भी यहाँ उपलब्ध हैं नाटक मनोहर प्राण से ॥ १८७ ।। चंपूनाटक जहाँ हमने लिखे, चंपू लिम्वे थे साथ में; साहित्य का यह अंग है, कैसे न रखते हाथ में ? पुरुदेव ९५ चंपू, यशतिलक' ९६ उत्कृष्ट हैं सब भाँतिसे; जिन-वाक्कलन सम्पन्न है साहित्य की सब जाति से ।। १८८ ॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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