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________________ जैन जगती SƏRGSSOS अतीत खण्ड जिनराज-वाङ्गमय-कोष में ऐसे अनेकों ग्रंथ हैं; आत्माभिसाधन के लिये बस एक वे शिव-पंथ हैं। भवभावना' ७९, जीवानुशासन'८°, पुष्पमाला'८' लेखिये द्वादशकुलक१८ २,निर्वाणकलिका ८ 3,भावसंग्रह ८४ देखिये।।१७६।। न्यायहम सप्तभंगी'८५ ग्रंथ का यों कर रहे अभिमान है; उपहाँस के अतिरिक्त जग ने क्या किया सम्मान है ? इस लोक के, परलोक के सब मर्म इसमें हैं भरे: यह पार्थमय संसार में आलोक स्वर्गिक है अरे ! ॥ १८० ॥ संसार-भर के ग्रंथ-गिरि पर चाह से पहिले चढ़ो, पापाण, तरुवर, पात पर उत्कीर्ण भावों को पढ़ो, नयवाद-भूमी में हमारी उतर कर विश्राम लो; निःकृष्ट, मध्यम, श्रेष्ठ फिर है कौन ?-उसका नाम लो॥ १८१ ॥ साहित्य-जग में जैन-दर्शन-न्याय अति विख्यात हैं; पञ्चास पुस्तक इस विषय की उत्तमोत्तम ख्यात हैं। स्याद्वाद.८६, न्यायालोक १८७, अरु मार्तण्ड ८८ विश्रुत ग्रंथ हैं; कादम्बरी, रघुवंश के ये जोड़ के सब ग्रंथ हैं ।। १८२॥ पुराण १८६ रचना पुराणों को कहो कितनी मनोहर गम्य है ! अन्तर्जगत, संसार का लेखा यहाँ पर रम्य है! इतिहास, आगम, नर-चरित इनको सभी हम कह सके; सचित्र इनको भूत भारतवर्ष के हम कह सकें ॥ १८३ ॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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