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________________ जैन जगती ® अतीत खण्ड हम पूर्व भव को देखकर आगे चरण थे रख रहे; हम जानते थे मोक्ष में कितने चरण हैं घट रहे। पर हाय ! दंभी आज हम प्रति दिवस पीछे हट रहे; छाया प्रलय की पड़ गई या भाग्य खोटे आ रहे ॥१२४॥ क्या नाथ ! नर-संहार हित विज्ञान निर्मापित हुआ ? पच्छिम दिशा में दखिये-इस रूप से विकशित हुआ । आकाश, ग्रह, त्रयलोक अरु सब तत्त्व हमको ज्ञात थे; फिर भी कभी हम दीन पर करते न यो उत्पात थे ॥१२॥ शिव शान्ति जग में हो नहीं सकती कभी संहार से; क्या भूप कोई कर सका है शान्ति अत्याचार से ? वत्तन अहिंसावाद का जब विश्वभर में होयगा; तब अभिलपित शिव शान्ति का साम्राज्य विकशित होयगा।।१२६।। क्रिमि कीट तक भी बस हमारे राज्य में स्वच्छन्द थे; पशु पूर्ण काली रात्रि में निश्चित थे, निष्फंद थे। हम ईश-नियमों की कभी अवहेलना करते न थे हम स्वार्थ बस पर-अथ का यों अपहरण करते न थे ॥१२७॥ कृषि-कर्म को करते हुए थे भरण-पोषण कर रहे; हम उदर-पोषण इस तरह संसार भर का कर रहे । पर आज तो गौमांस ही अधिकांश का आधार है; शुभ्रांशु के पश्चात् क्या छाता सदा तमभार है ? ॥१२८।।
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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