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________________ जैन जगती SHREETTE * अतीत खण्ड आलोचना करते सदा थे भोर में निशिचार की; करते सदा फिर साँझ को दिन में किये व्यापार की। थे मास की अरु पक्ष की भी कर रहे आलोचना; वर्षान्त में करते तथा साँवत्सरिक आलोचना ॥ ११६ ॥ जीवन हमारा देख कर सुर, इन्द्र भी अनुचर हुए; प्रति कर्ममें जो थे अथक सहयोग दे सहचर हुए। ऐसे अनूठे कर्म-प्राणा क्या कहीं दख गये ? बस मोक्ष-जेता, भव-विजेता हम हमी से हो गये ॥ १२० ।। क्या होगया जो आज हम अघ-पंक में हैं सड़ रहे; आकादि के जो शुष्क उड़ कर पत्र हम पर पड़ रहे । यह पुण्य-जल से जिस समय सरवर भरा हो जायगा; हम पंक में पंकज खिलेंगे आवरण हट जायगा ।।१२।। ये गर्व इतना कर रहे हैं 'रेडियो' 'नभयान' पर; यह तो बतादे-ज्ञान इनका है, मिला किस स्थान पर । हे 'शब्द' रूपी यह कहो किसने तुम्हें पहिले कहा ? सुर-यान यदि होते नहीं. नभयान क्या होते यहाँ ? ॥१२२॥ हम भवन पर बैठे हुए थे जग बदरवत देखते; है क्या, कहाँ पर हो रहा-सब मुकुरवत थे पेखते । तन-मन-वचन में, कर्म में सबके हमारा प्रासयान अज्ञेय हो-ऐसा न कोई दीखता नागस था'
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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