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________________ M - जैन जगती, ॐ अतीत खण्ड ये देखिये इस ठौर पर हैं प्रश्न कैसे हो रहे ! विदुषी जयन्ती १४ को स्वयं भगवान उत्तर दे रहे । इन भूत दत्ता११५, यक्ष दत्ता का स्मरण-बल देखिये; फिर सप्त बहिनों के लिये उपमान जग में लेखिये || ६ || ये लक्ष्मियाँ थी, देवियाँ थीं, ऋद्धियाँ थीं, सिद्धियाँ; तन, मन, वचन अरु कम से करती रहीं नित वृद्धियाँ। ये थीं सुधा, गृह था सदा देवामृताकर, सुख भरा; ऋतुराज का चहुँ राज्य था, सब भाँति हर्पित थी धरा ।। १०० ।। ऐसा न कोई कर्म था जिसमें न इनका योग हो; घर में तथा बाहर सदा इनका प्रथम सहयोग हो : गाहस्थ्य-सुख को दख कर थ दव मोहित हो रहे; नरलोक को सुरलोक से सब भाँति बढ़कर कह रहे ।। १०१ ॥ पूर्वज हमारे देव थे, नर-नारियाँ थी देवियाँ थीं मनुज-मानस का अलौकिक कान्त-दशी उमियाँ। इनके सुभग अनुचर्य से कृतकाम पूर्वज हो गये; हम आम्रतरुवर-डाल पर फल हाय! कटु क्यों लग गय।। १०२॥ ये थी किशोरी वृक्षा-राजी, शील-धन पति-लोक था; ये ध्येय थी, वे ध्यान थे, परिव्याप्त प्रेमालोक था। जमदग्नि , कौशिक १७, इन्द्र तक जिस मार्ग विचलित हो गये; उस मार्ग में ही शील के शुचि पुष्प इनके खिल गये ॥ १०३ ।।
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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