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________________ जैन जगती * अतीत खण्ड अरि के करों में तात ने सौंपा जिसे निज भाग्य पर; बन में मरी फिर छोड़ जिसको मातृ जिह्वा खोंच कर । रथवान, गणिका, श्रीमती को भूल हम सकते नहीं; हा ! वासुमति' ने कष्ट कितने थे सहे-गिनती नहीं ॥१४॥ तन के सिवा सर्वस्व को जो द्यूत में थे खो चुके; तज वेप सारे राजसी अवधूत जो थे हो चुके । होकर दुखी जिसने प्रिया को बोर वन में था तजा; करती उसे सम्पन्न है फिर भीम नृप की आत्मजा' ।। ६५ ।। ब्राह्मी' ०२, सुजष्टा१०३, सुन्दरी१०४ का ब्रह्म-व्रत क्या था कहो! सुर, इन्द्र जिस पथ में गिर उसमें चली थी ये अहो! ये आय-कुल की दीपिका थी ज्ञान-गौरवशालिनी; ये धर्म-कुल-निशिराज की थी शरद निर्मल चाँदनी ।। ६६ ॥ थी पुप्प'०५ चूला, धारिणो-सी१०६ देश में सुकुमारियें; थी मदनरेखा१०७, नर्मदा'०८, सुलसा'०९, मुसीमा नारियें। जब अञ्जना'११, पद्मावती' १२ के तप मनोहर हो रहे; था स्वर्ग-भूमी देश यह, थे भाग्य इसके जग रहे ।। १७ ॥ तुम विश्वभर की नारियों के कष्ट पहिले तोल दो; राजीमती १3 के कष्ट का फिर तोल मुँह से बोल दो। देखो उधर वर लौट कर आया हुआ है जा रहा; यह ज्ञान माया का कहो रण द्वन्द कैसा हो रहा!॥१८॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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