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________________ जैन जगती * भविष्यत् खण्ड हा पितृ-धन ! हा जाति-धन ! हा धर्म-धन ! हा देश धन ! हा ! नाथ ! यों है मिट रहा यह राष्ट्र-धन हर एक क्षण ! युवको ! तुम्हें आती नहीं होगी कभी भी शर्म हा ! आती न होगी याद तक - है चीज कोई धर्म हा ! ||११५ || तुमको न जब यह ध्यान है क्या हो रही निज की दशा ? आने लगी क्यों ध्यान में तब दीन, युवको ! तुम्हारे प्राण-बल को शीत करते भेष अलं वह गर्म क्यों नहिं बन गया ? ॥ ११६॥ निर्धन की दशा ? कैसा लग गया ? हु युवको ! उठो, आगे बढ़ो, विपदावरण को चीर दो; सन्तप्त आर्या को करके दया कुछ नीर दो । युवको ! तुम्हारा यह बसंती काल शाश्वत है नहीं ! संसार में क्या ए-तृष्णा के सिवा कुछ है नहीं ? ||११७ || पंचायतन पंचो ! तुम्हारी शक्ति का अनुमान लग सकता नहीं; तुम दण्ड ऐसे दे सको, जो भूप कर सकता नही । सम्राट से, खुद ईश से चाह मनुज डरता न हो; है कौन जो पशुवत तुम्हारे सामने रहता न हो ? || ११ || पंचायतन में ईश का जो भान हम लखते नहीं; सम्राट से भी अधिक तुमसे आज हम डरते नहीं । पंचायतन में आज पर गुण्डत्व आकर भर गया ! अन्याय करने में अभी पंचायतन बस बढ़ गया !! ॥ ११६॥ १७०
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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