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________________ जैन जगती * भविष्यत् खण्ड इस साम्प्रदायिक द्वेष-मत्सर-राग को तुम छोड़ दो; खण्डित हुये इस धर्म के तुम खण्ड फिर से जोड़ दो। अब भी तुम्हारा तेज है-इतने पतित तो हो नहीं; आज्ञानुलंघन हम करें गुरु!-धृष्ट इतने तो नहीं ।। ६०॥ साध्वियें हे साध्वियो ! रुयुद्धार का अब भार तुम संभाल लो; जिसके लिये तुम थीं चली पति-गेह तजकर-सार लो। नारीत्व में शृङ्गार के जो भाव घर कर घुस गयेउनके अखाड़े तोड़ दो-सद् भाग्य जग के जग गये ॥ ६१ ॥ स्त्रीवर्ग का सिंहावलोकन आज तुम आचख करो; स्त्रीवर्ग को पूज्ये! उठाने का अचल ब्रत तुम करो। आदर्श होंगी आप तो-आदर्श होंगी नारियें; यदि बढ़ रही हैं आप कुछ, तो बढ़ सकेंगी गृहणियें ।। ६२ ।। हे साध्धियो ! फिर आप भी तो साधुओं के तुल्य हैं; इनसे न कुछ हैं आप कम-इनसे न कुछ कम मूल्य है । आत्मार्थ साधन के लिये तुमने तजा पतिगेह को; समझो न कोई चीज फिर इस निज विनश्वर देह को ॥६॥ नेता नेता जनो! यदि धर्म है कुछ आपके इस प्राण में, सर्वस्व यदि तुम दे रहे हो जाति के कल्याण में; फिर क्यों नहीं जूना नया तुम आज तक कुछ कर सके ? हमको परस्पर या लड़ाकर उदर अपना भर सके १॥ ६४॥ २५६
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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