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________________ जैन जगती ® भविष्यत् खण्ड ® PEECiroen अब एक मेरी प्रार्थना है आप यदि गुरु ! मानलेंयह वेष पावन भूलकर यह वेष भिक्षुक जानलें । गुरुदेव ! भिक्षक से अधिक अब मान तो है आपका? तुम पूज्य अपने को कहो, नहिं पूज्य-पद है आपका !! ।। ५५ ।। जिस क्षेत्र में तुम फूट के हो बीज गुरुवर ! बो चुके, उस क्षेत्रतल में आप भी आराम से बस सो चके! निष्कर्ष अन्तिम यह हुआ इस अवदशा पर ध्यान दो; गुरु ! काटकर यह शष्य कुत्सित आज जीवन दान दो ॥५६ ।। गुरुदेव ! पूर्वाचार्यवत् आदर्श जीवन तुम करो; पंचेन्द्रियों का संवरण कर शीलमय संयम करो। त्रयगुप्ति, पंचाचार का, व्यवहार का पालन करो, जीवन करो तुम समितिमय-आचार्य-पद सार्थक करो।। ५७ ॥ दुःशीलता से वैर हो, तुमको घृणा हो रूप से; तुमको न कोई अर्थ हो श्रीमंत, निर्धन, भूप से । गौरव-भरी प्राचीनता की ज्योति फिर वह जग उठे; यह रवि-उदय के आगमन पर तम तिलामिल जल उठे।। ५८ ॥ चारित्र-दर्शन-ज्ञानमय वातावरण जलवायु हो; ऐसा सुखद वातावरण हो क्यों न हम दीर्घायु हों ? गुरुवर ! अहिंसावाद का जग को पढ़ा दो पाठ तुम हम रह गये पीछे अधिक-आगे बढ़ा दो भाज तुम ॥४॥
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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