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________________ * जैन जगती * वर्तमान खण्ड * जिस शील के तुम शैल पर ऊँचे कभी थे यों चढ़े; चढ़ कर उसी शैलेश पर थे मोक्ष जाने को बढ़े !गिर कर उसी शैलेश से तुम आज चूर्णित हो गये ! संसार के तुम रज-करण में चूर्ण होकर खो गये || ३०५|| पूर्वजों में संदेह -- जिन पूर्वजों की देह से सम्भव हुई यह देह है, उन पूर्वजों के वाक्य में होता हमें संदेह है ! मति-भ्रम हुआ अथवा हमारी बुद्धि कुंठित हो गई !प्रस्थान की तैयारियें अथवा अनैच्छिक हो गई ! || ३०६ || इतिहास अनुभव का किसी भी जाति का साहित्य है; अनुभव किसी का खोगया, उसका विगत आदित्य है । हमको न जाने क्या हुआ, क्यों मत हमारी खोगई ! साहित्य ऐसे आप्त में शंका हमें क्यों हो गई ! ॥३०७॥ नव कूप कोई खोद कर तत्काल क्या जल भर सका ? तत्काल कर कोई कृषी नहिं है क्षुधा को हर सका । क्या सम्पदा पैतृक कभी होती किसी को त्याज्य है ? कुलपूत-भाजक के लिये तो भाज्य यह अभिभाज्य है || ३०८ || आडम्बर वैसा न अनुभव आज है, वैसी न कोई बात है ! वैसी न अब है चन्द्रिका, श्यामा श्रमा कुहुरात है ! फिर भी उजाला दीप का कर तोम तम हैं हर रहे; है प्राण तो तन में नहीं, पर शव उठा कर चल रहे ! ||३०६ ॥ १४३
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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