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________________ जैन जगती वर्तमान खण्ड Maasar कोटीश हो, लक्षेश हो, चाहे भले अलकश हो; सकता न कर तुलना तुम्हारी आप यदि अमरेश हो; पर बन्धु ! वह नर काम का क्या हित न जिसने हो किया? धन भी गया,वह भी गया,उपकृत न दीनों को किया ! ॥३०॥ संयम तुम जैन हो, तुम हो बताओ, हम किसे जैनी कहें ? जो राग-प्रेमी, द्वेष-सेवी हो उसे जैनी कहें ? मन में तुम्हारे काम है, तन में तुम्हारे ऐश है :-- क्या जैन होने के तुम्हारे चिह्न ये ही शेष हैं ? ।।३०१॥ मन पर तुम्हारा वश नहीं, वश चक्षु पर रहता नहीं; जिह्वा तुम्हारी पर तुम्हारा वश कहीं चलता नहीं ! ये करणं भी स्वच्छन्द है, यह गन्ध-कामी नाक है। उर में तुम्हारे स्पर्श की रहती जगी अभिलाष है ! ॥३०॥ जब तक न संयम भावनाएँ आप में जग जायगी; कल्याण की तब तक न कोई आश भी दिखलायगी । संयम-नियम तुम खो चुके, शैथिल्य-प्राणा हो चुके तुम पूर्व अपने मरण के चित्यास्थ सब विधि हो चुके ॥३०॥ शील हा ! शील का तो क्या कहें ?हा ! शील शर्दी खा गया ! वत्सर अनेकों हो गये, पर स्वस्थ नहिं पाया गया। अब तो तुम्हारा दोष क्या, जब बीज भी अब है नहीं! क्या नाथां कोई चीज हा ! बिन बीज होती है नहीं ? ॥३०४॥ १४२
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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