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________________ * जैन जगती * वर्तमान खण्ड * ये हाय ! जितने शाह हैं, उतने समझिये चोर हैं ! 'इनसे बचो, इनसे बचो' अब मच रहे ये शोर हैं ! इन मारवाड़ी बन्धुओं के काम सब विकराल हैं ! इनको पिलावे दुग्ध जो घर में उसी के व्याल हैं ।। २६० ।। वैसे हमारे बन्धु ये जल छान के ही पीयँगे ! पर दीन का धन रक्त ये हा ! अनछना ही पीयँगे ! व्यापार माया जाल है इनका, तनिक तुम लेख लो ! उभरे न पीढ़ी सात वे, जो फँस गये तुम पेख लो !! || २६१ ।। हा! जैनियों की स्वार्थ-निष्ठा धर्म-निष्ठा हो गई ! पड़ धर्म-निष्ठा पेट में हा! हा ! सदा को खो गई ! भीषण पतन इस भाँति का हा ! आज तक किसका हुआ ! हे वीर के अनुयायियो ! देखो तुम्हें यह क्या हुआ ? ।। २६२ ।। जातीय विडम्बना इन जाति-भेदों ने हमारा वर्ण विकृत कर दिया ! आन्तर प्रभेदों ने तथा श्रवशिष्ट पूरा कर दिया ! क्या-क्या न जाने बन गई ये जातियें इस काल में ! कैसा मनोरम देश था, थे श्रार्य हम जिस काल में ! ।। २६३ ।। करने व्यवस्थित देश को ये वर्ण स्थापित थे किये ; प्रति वर्ग के कर्तव्य भी निश्चित सभी विध थे किये थे विप्र विद्यादा अरु रक्षक सभी क्षत्री हुये ; पोषक बने हम वैश्य गरण, अन्त्यज तथा सेवी हुये ॥ २६४ ॥ १३४
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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