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________________ जैन जगती g वर्तमान खण्ड HAN जब ब्रह्मव्रत हममें नहीं, व्यायाम भी करते नहीं ! फिर रोग, तस्कर, दुष्ट के क्यों दाँव चल सकते नहीं ? हमसे किसी को भय नहीं, हमको डराते हैं सभी ! धन-माल के अतिरिक्त रामा भी चुराते हैं कभी !!! ॥ २५५ ॥ ऐसा पतन ह नाथ ! करना योग्य तुमको था नहीं ! हर भाँति से यों निःस्व करना उचित हमको था नहीं ! होगा कहाँ पर छोर ?-अब तो हे विभो ! बतलाइये; अब तो अबल हैं भाँति सब हम !--आश तो दिखलाइये !!॥२५६। धर्म-निष्ठा ये हाय ! कैसे जैन हैं, घट में न है इनक दया ! सिद्धान्त इनक हैं दयामय, हाय ! फिर भी बे हया ! बाहर सदाशय भाव हैं, बाहर दयामय भाव हैं ; अवसर पड़े तुम देखना भीतर कि कैसे दाँव हैं ! ।।२५७ ।।। इन जैनियों ने झूठ में भी रस कला का भर दिया ! मीठे वचन से कर उसे मिश्रित अधिक रुचिकर किया ! व्यापार, कार्याचार, धर्माचार इनके झूठ है ! बाहर छलकता प्रेम है, भीतर हलाहल कूट है ! ।। २५८ ।। मार्जार-सा इनका तपोबल पर्व पर ही लेख्य है। उपवास, पौषध, सामयिक उपतप व्रताम्बिल पेख्य है ! निन्दा, कलह, अपवाद के व्ययसाय खुलते हैं तभी! एकत्र होकर क्या यहाँ ये काम हैं करते सभी ? ।। २५६ ॥ १३३
SR No.010242
Book TitleJain Jagti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherShanti Gruh Dhamaniya
Publication Year1999
Total Pages276
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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