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________________ ३८ ११ अनवस्थित- अनियमित - अस्थिर प्राणीका आत्माही अपने आपका वैरी जैसा और जितेंद्रियका आत्मा ही आत्माकों शरण करने योग्य समझना. ( १२ धर्मकार्य के समान कोइ श्रेष्ठ कार्य, जिवहिंसा के समान भारी अकार्य, प्रेम रागके समान कोई उत्कृष्ट बंधन, और बोधी लाभ - समकित प्राप्तिके समान कोई उत्कृष्ट लाभ नहीं हैं. १३ परस्त्रीके साथ, गमारके साथ, अभिमानीके साथ और चुगलखोर के साथ कवी, भी सोबत न करनी चाहिये क्यौं • कि ये हरएक महान् आपत्तिके ही कारण हैं. C १४ धर्मस्त मनुष्यों की जरुर सोवत करनी चाहियें, तबके ज्ञाता पंडितजनकों जरूर दिलका संशय पूंछना चाहियें, संत-सु साधुजनोंका जरुर सत्कार करना चाहियें और ममता-लोभ दरकार रहित साधुओंकों जरूर दान देना चाहियें; क्योंकि ये हरएक लाभकारी है. ११ विनय विचार पुत्र और शिष्यकों समान गिनने चा हिये, गुरुकों और देवकों समान गिनने चाहियें, मूर्ख और तिर्यचको समान गिनने चाहिये, और निर्धन तथा मृतककों समान गिनने चाहियें. १६ तमाम हुन्नरोंस धर्माराधनका हुन्नर, समस्त कथाओ से मूल्य में धर्मकथा, सव पराक्रमसें धर्म पराक्रम, और तमाम सांसा रिक मुखोंसें धर्म संबंधी सुख विशेष शोभा पात्र ♦
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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