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________________ ૨૭ कपट के समान दूसरा कोई प्राणघातक भय नहीं है; सत्यके जैसा कोई दूसरा सत्य शरण नहीं है; लोभके जैसा कोई दूसरा भारी दुःख नहीं है और संतोष के जैसा कोई दूसरा सर्वोत्तम सुख नहीं है. ५ सुविनीतक बुद्धि बहुत भजती हैं, क्रोधी कुशीलकों अपयश बहुत भजता है, भन चित्तवालेकों निर्धनता बहुत भजती है, और सदाचारवंत सुशीलको लक्ष्मी सदा भजती है. ६ कृतन्न मनुष्यको मित्र तजते हैं, जितेंद्रिय मुनिको पाप तजते हैं, शुष्क सरोवरकों हंस राजते है, और गुस्सेवाज - कषायवंत मनुष्यकों बुद्धि तज देती है. ७ शून्य हृदयवालेको बात कहनी सो विलाप समान है, गड़ गुजरीको पुनः पुनः कथन करनी सो विलाप समान है, विक्षेप चित्तवालेकों कुछभी कहना सो विलाप समान है, और कुशिष्य शिरोमणिको हितशिक्षा दैनी सो भी विलाप समान है. ८ दुष्ट अफसर लोगोंको दंड देनेके वास्ते तत्पर रहते हैं, मूर्खलोग कोप करनेमें, विद्याधर मंत्र साधने में, और संत सुसाधुजन तत्वग्रहण करनेमें तत्पर रहते हैं. -९ क्षमा उग्रतपका, स्थिर समाधीयोग उपशमका, ज्ञान तथा शुभ ध्यान चारित्रका, और अति नम्रता पूर्ण गुरु तर्फ वर्तन शिष्यका भूपण है. १० ब्रह्मचारी भूषण रहित, दीक्षावंत द्रव्य रहित, राज्यमंत्री बुद्धि सहित और स्त्री लज्जा सहित शोभायमान मालूम होते हैं.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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