SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - १७ जुगार खेलनेपाले जुगारीके धनका, मांस खानेकी आदत पालेको दयाबुद्धिका, मदिरा पीनेवालेके यशका और वेश्यासंगीके कुलका नाश होता है, १८ जीबहिंसा-शीकार करनेवालेका उत्तम दयाधर्मका, चोरीकी आदतवाले के शरीरका, और परस्त्रीगमन करनेपालेके दयाधर्म, और शरीरका नाश होता है. अधममें अधमगति होती है. वास्ते ये तीनू दुर्व्यसन यह लोक और परलोक इन दोनूस विरुद्ध होने के लिये अवश्य छोड देनेके योग्य ही है. १९ निर्धन अवस्थामें दान देना, अच्छे होदेदार अफसरकों क्षमा रखनी, सुखी अवस्थामें इच्छाका रोध करना, और तरुण : अवस्थामें इद्रियोंकों कजमें रखनी ये चारों बात बहुत ही कठीन हैं; तथापि वो अवश्य करने योग्य होनेसें जब पैसा मोका हाथ लगे तब जरुर लक्ष देकर करनी ही चाहिये. धर्म कल्पवृक्ष. धर्म साक्षात् कल्पवृक्ष जैसा है, दान, शील, तप और भावना यह चार उनके प्रकार हैं. अभय सुपात्र-ज्ञान दान वगेरः दानके भेद हैं. दानसे सौभाग्य, आरोग्य, भोग, संपत्ति तथा यश भतिष्ठा माप्त क्षेते हैं. दानगुणसे दुश्मन भी तावेदार हो पानी भरता है. यावत् दानसें शालीभद्रकी तरह उत्तम प्रकारके देवीभोग प्राप्त करके अंतमें मोक्ष सुख प्राप्त होता है. शील:-पशुहत छोडकर शील-सदाचारका विवेक पूर्वक से
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy