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________________ २५६ पर छोड मदांध या रागांध बनकर तदन विपरीत वर्तन चलाव तो अपने स्वामी-धर्मका द्रोह करनेहार अपनके क्या हाल होयेंगे ? पास्ते मुनाशिव है कि-अपनको परम उपकारी श्री धर्मको खातिर __ अपने तन, मन, धन, अर्पन करने में पीछा पांव न परत जितनी बन सकै उतनी उन्नति-प्रभावना करनी चाहिये. निग्रंथ महात्माओंकों समुचित है कि अपने पीछे लगे हुवे शुभाशयत साधु साध्वी श्रावक-श्राविकारुप श्री चतुर्विध संघकी ज्यौं उन्नति होवै त्यों नि:स्वार्थ-निराशी भावसें भवनिा चाहिये. श्रीसंघकी सच्ची उन्न तिकी नीव उन्होंमे परस्पर सुसंप-साथ आचार विचारकी शुद्धतामें रही हुई है। वास्ते मुनाशिव है कि पवित्र मुमुक्षु वर्गफी ज्यौं श्री संघमें सब जगह सुसंप सुदृढ होथे, और ज्यौं उन्होंमें पवित्र आचार विचारकी शुद्धि सुहट होवै त्यों करने के लिये आपस आपस मुमुक्षु वर्ग ही पहिले अति उमदा दिलसें औषयता कर-अक्यता बढाकरके आपके अंदरही पहिलं पवित्र आचार विचारकी चाहिये वैसी उमदा दिलसे शुद्धिकर सद् वर्तन दिखलादेनाही मुनाशिव है... लेखक दिखला देनमें अति दिलगीर है कि-आजकल ज. मुमुक्षु वर्गही अक्यताको नहीं चाहते हैं या उसी वर्गही अॅक्यता... दूर होनेसें जगह जगह अव्यवस्था फैल रही है तो आपका निस्तार करनेमें उक्त मुमुक्षु वर्गकाही आलंबन लेनेहारे श्रापक वर्गका तो. __ कहनाही कया ? बहुत करके मुमुक्षु वर्गकाही नाम जैन सांप्रदायमें पदेश रुपसे प्रसिद्ध है. यदि उपदेशक वर्गमें अक्यता हो तो
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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