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________________ २५५ सुहावना लग पैसा सदुपदेश देकर उन्होंकी धर्म संबंधी उमीयोंको सतेज कर, और किसी विषम संयोगसे धर्मसें पतित हो गये हुका ज्यौं पुनरोद्धार होचे त्यौं परम करुणारससे प्रेरित हुई पूर्ण खत कर ये आदिक असंख्य गुणगणालंकृत हो अपने सुभागी सुकानीये धार लेबै तो दुनिया कोई न कर सके वैसा परम आश्चर्यभूत काम कर सके. अलपत अपने पवित्र शासनके ऐसे मुकानि अपने सद्भाग्यवलसे जात होवै तो वै तर्फकी अपनी फर्ज भी अपनको जरुर अदा करनी चाहिये. अक्षरशः परम पवित्र परमात्माकी आज्ञापत् वै महाशयोंकी आज्ञा मुजब अपनको अति नम्रतापूर्वक अनुसरही चलना चाहियें, पूर्ण श्रेय साधनेका सीधा भाग यही है. हाँ तक पवित्रशासन तर्फकी अपनी फर्जे और उसी के साथ अति निकट संबंध घरानेवालोंकी तर्फकी अपनी फर्ने अपन समझेंगे नहीं, या समझने कुछ आनेपरभी प्रमादादिक पर१२६ हो अपनी योग्य फज अपन अदा करेंगे नहीं, वहांतक अवश्य अपनही हानि पाचंगे. मिथ्यामानमें मोहित हो एक दूसरेकी परवाह न रखत परवाह रखनी ये विनयमूल पवित्र शासनकी रीतिस १६न उलटा मालुम होता है. उस मुजब आपखुदीसें वर्तन चलानेसे कभी अपना श्रेय होने का संभव नजर नहीं आता है. अपनने धर्म के प्रभावसेंही सब कुछ सुख संपत्ति पाई है। तो भी उस उपकारी धर्मका उपकार भूलकर उन तर्फकी अपनी योग्य फर्ज न पजाते हुवे अपन मोह मदिरा कैफमें अपना कर्तव्य बाजु
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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