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________________ - ર૧૭ इच्छित कार्य उपदेश द्वारा कितनी सहेलाइसें साध सकै ? यदि उपदेशक वर्गका केवल परमार्थ बुद्धिस पवित्र शास्त्रानुसारसही द्रव्य, क्षेत्र, कालादिक विचार कर श्रोतावर्गको समझ बुझ पडे वैसा स. २० सादी मीधी भाषामें उपदेशद्वारा कथन किया जाता हो तो उपकारमें कितनी बड़ी भारी द्धि हो सकै ? मंद परिणामी-शिथिल गवडिये साधुओंके संगसे जो सड़ा हो गया होवै वो किस तरह जल्दी निर्मूल हो सकै ? उत्तम प्रकारके त्याग वैराग्य धारन करके विवेक पूर्वक शासनके सच्चे लाभकी खातिर गहेरी खत और फिक्रसें उपदेश द्वारा प्रयत्न किया जाता होवै तो कैसा अ. नहद लाभ हो सकै ? मिथ्यात्वीओंकी सोचतसे, अज्ञानताके जोर से, या चाहे वैसे निर्जीववत् सबके लियेसे जो जो बुरे रीत रिवाज घुस गये होवे, अपने सच्चे आचार विचार भूलाया गया होवे और व्हेमोंने घर पाल दिया हो, वो सभी निर्दभ मुनि उपदेशबलस कितनी सहेलाइस सुधार सके ? जब मुनियोंम औक्यता-संप और योग्य आचार विचारकी शुद्धिसें पवित्र शासनकों और पवित्र आसनरागी जनोंका असा अपित्य अनुपम लाभ हाथ आ सके साहै, तो पीछे मेरे प्यारे भ्राता और भगिनीय भागवती दिक्षा प्रहण कर लिये परभी; अगार (ह) छोड अणगारपना अंगीकार कियेपरभी, राग द्वेष मोहादिकको हानेके वास्ते गांव-नगर-शाति: अटुंब-कवीलादिकका प्रतिबंध छोड देने परभी, और आखिर मानापमान छोड मुख दुःखको समान गीनकर सभी परिसह उपस
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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