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________________ રરર पनी लायक फर्जसे जब वै विलकुल विमुख रहते हैं-मतलपमें दुःखी भाइयोंकी कुछ भी फिन दिलमें नहीं धरते हैं, तब ये स्वाभाविक है कि अन्यद्रव्यहीन दुःखी श्रावकवर्ग भी उन्होंकी तर्फ अपना अभावही प्रदर्शित करे ! इस प्रकार कुसंपके कारण पढनेसे कुसंप भी वताही जाता है. इस मुजब दिन प्रतिदिन बढते हुवे कुर्मपके मुल काटडालनेके लिये जहाँ तक स्वार्थी श्रीमानवर्ग अपने खास खास कर्तव्य लक्षमें लेकर पूर्ण फिकके साथ भगीरथ यत्न नही करेंगे और जिस द्रव्यको यहां ही छोडकर रीते हाथसे अपने परभवकों चला जाना है उस अस्थिर द्रव्यका मोह छोडकें उसद्वारा अपने दुःखी होते साधर्मीयोंका बने उतना उद्धार नहीं करेंगे वहांतक दिनप्रतिदिन होती जाती करुणाजनक स्थिति कभी नहीं सुधर सकेगी. ऐसा निश्चय पूर्वक समझकर दाने दिलके मुनिराज - और शासनका हित चाहनेहारे श्रावकजन अपनी अपनी उचित फर्ज बजानेको तत्पर होकर जिस प्रकारसे ये कुमपका सडा दूर हो सकै उस मकार करके भगीरथ यत्न सेवन किया जायगा तब आशा है कि वो काम समस्त जैन कॉमको बडे भारी आशिर्वाद' रूप होवेगा. निःस्वार्थपणे प्रयत्न करनेवालेकों अतुल लाभ संपादन होगा. और शासनकी बड़ी उन्नति में दूसरे अनेक जीवोंको बेरखेर लाभ हो सकेगा. प्यारे भाइयो ! आप यदि अन्य निरुपयोगी उपर टिप्पेकी झूठी धूमधाम तनकर यह समयोचित सूचना लक्ष लेके उसमें आपका सच्चा हित समझ विवेकसें वर्तन रखोगे तो खसूस
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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