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________________ २२१ कुसंपसे अपनी बड़ी भारी अवनती-ख्वारी हुइ है. पेस्तर जब श्रा लोग सुसंपद्वारा बहुतसे व्यौपार रोजगारादि न्यायनीतिसे करके अनर्गल लक्ष्मी पैदाकर, तीर्थयात्रा सद्गुरु भक्ति और साधर्मी भाइयोंकी योग्य सेवा कर, पवित्र शासनकों शोभायमान् कर न्यायोपार्जित लक्ष्मीका ल्हाव लेकरके अपना जन्म सार्थक करतें थे, तब अभी कुसंपसें करके धंदे रोजगार-पैसे-टके-न्यायनीति और इजात-आवरुसे श्रावकभाइ बहुत करके कमजोर हुवे मालुम होते हैं. जैसी बडीभारी अवदशा होनेका मूल सबब हुँ निकालना वो सास जरुरतकी बात है. उस्का खास कारण कुसंप अज्ञान और अविवेकही है. जहांतक काले मुँहवाले कुसंपको दूर फेंक कर मुसंप पढानेमें न आयगा, और एक दूसरे की उन्नति मारफत शासनकी उन्नति करने के वास्ते उदारतासे योग्य कदम भरनेमें आगे नहीं, वहांतक जनोंकी स्थिति सुधारनेकी या सुधरनेकी आशा रखनी व्यर्थ है. आजकल कुसंप और अविवेकके जोरसें अकेलेकाही पेटपोषण करनेका स्वार्थ (Selfishness ) और वे परवाही ( Indifference ) ये दोनू बडे भारी दोषोंने श्रीमानोंके दिलमें भी निवास कर लिया है. इसका परिणाम यही आया कि वे अपने सगेभाइ या साधीभाइयोंकों दुःखी स्थितिमें प्रत्यक्ष देख ले तो भी परोपकार बुद्धि से उन्होंका उद्धार करनेके वास्ते सोचविचार करने जितना भी नहीं कर सकते हैं. असें एक जैन-व्यवान होने पर भी बजाने लायक अ
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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