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________________ ૨૨૨ समझ लेना कि उससे तुम थोडेही श्रमसें भी वहा भारी लाभ भाप्तकर मकोगे. अपनी मनिकरपनानुमार चाहे उतना अच्छा काम करने से भी वीतराग पचनानुसार काम करनेमें ही बडा भारी फायदा है. अक्षय सुख मिलानेकी इच्छा करनेवालकों तो जरूर शानी के पचनानुसारसेंही पनि रखना श्रेयकारी है. स्वमति कल्पनानुसारसे वर्तन रखने से तो जीव अनंतकाल भ्रमण किया सो भी अबतक उसका अंत नहीं आया. वास्ते निश्चयसें माननाही लाजिम है कि शास्त्राचा मुजब परमार्थ बुद्धिसें समयादिक उचित कार्य ही करनेमें समाहित समाया गया है. इस कानूनसे विरुद्ध वर्तन रखनेवाले सब कोई आपत्ति के भागीदार होते हैं, पास्ते अपनको अपना सच्चा हिन चिंतन करना यही अपना खास कत्तव्य है, ज्ञानी पुरुष तो परमार्थवृत्तिस मुलटाही मार्ग वतलाते हैं। तथापि अपन अपनी मतिसे उलटे हो उनकी आज्ञाका उल्लंघन करते है. तो उसमें अपने किरातकाही दोष है. २ आप सभी जानते ही हो कि अपन सभीमें काले मुंहवाले कुसंपने वडामारी जुल्म कर दिया है, उसको निर्मूल करनेके वास्ते आगवानी करनेवालोंकों अवश्य तत्पर होना ही मुनासीब है. नही તો વો અને પાર પુરે ૪ વાટીને વાલી ન કરવો. વાર્ત "पानी पहेलें पाल बंधे तो खूब हैं." जैसी दीर्घष्टि-समय जाननेवालेकी खास नीति है. तो अब ज्यादे देर करनी छोडकर जल्द जात होनेकी जरुरत है, यदि जैसा न किया जायगा तो वेशक ,
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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