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________________ मर्यादा छोडकर खडी न हो जाना चाहिये. ११ पहिभूमिसें गुरु संग संग आये हुवे ५९भी गमणागमणे थानि इरीयावही गुरुजी के पहिले ही न आलोयनी चाहिये. १२ गुरुजीने कुछ पूंछा तो उसका उत्तर न सुन्नता हो उनकी तरह पीछा उत्तर ही न देवे, वैसा न करना चाहिये. १३ कोइ आये हुवे श्रावकादिकको अपनी तर्फ प्यारवंत बनाने के लिये गुरुजीके पेस्तरही उन्होंकी साथ आलाप संलाप न करना चाहिये. १४ भिक्षा लाये बाद अन्य शिष्यादिकके पास प्रथम आलोय कर पीछे गुरुजीके पास जा कर न ओलोचना चाहिये. १५ लाइ भिक्षा पहिले दूसरे साधुओंको बताये बाद गुरुमहाराजको न बतलानी चाहिये. १६ भिक्षा लाये बाद पहिले दूसरे साधुओंकों निमंत्रण किये बाद गुरुजीको निमंत्रण न करना चाहिये. लेकीन पहिला ही निमब्रण करना. १७ भिक्षा लाये पाद पेस्तर गुरुजीकी द्धादिककी आज्ञा विगरही मनमें आवै उसको मरजी मुजव वापरनेकों न देना चाहिये. १८ लाइ हुइ भिक्षासें मनपसंद-मिष्ट आहार आपकोही न खा जाना चाहिये. . १९ गुरुजीने वोलाया हुवै तो भी विलंब करके बोलना या घटित-विनय पूर्वक जवाब नहि दैना, यानि धीठाइ या उपयोग ५ रहित असा वर्तन रखना न चाहिये.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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