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________________ ११८ वाललम कुजोड ये सब विद्या विनयादिक पानेमें बडे हरकते रूप होते है, जिसके परिणामसे वै इस लोकके स्वार्थसें भ्रष्ट होकर परभवका भी साधन प्रायः नहीं कर सकते हैं; इतनाही नहीं लेकिन अनेक प्रकारके दुर्गुण शीखकर बडे कष्टोंके भुकनेवाले हो जाते हैं; वास्ते वाल बच्चांका सुवारा करनेकी जोखमदारी मावापोंके शिरपरसें कमी नहीं होती है, वो उन्होंको खूब शोचनेकी जरूरत है. मावापोंकी कसूरसें लडके भूर्ख प्रायः रहनेसें उन्होको ही एक शल्यरूप होते है, और उन्हीकी पवित्र तसे बालक व्यवहार और धर्म कर्ममें, निपूण होनेके सववसें उभय लोकमें सुखी होनेसें उन्होंकों भवोभवमे शुभाशिर्वाद देते हैं. परंपरासें अनेक जीवोंके हितकर्ता होते है. और वै श्रेष्ठ भावापोंके दर्जेकी खुदकी फर्ज अपने वालवच्चे या संबंधीयोंकी तर्फ अदा करनेमें नहीं चूकते हैं. हमेशां सज्जन वर्ग में अपने सद्विचार फैलाने के वास्ते यत्न करते हैं, और पारमार्थिक कार्योंमें अवलदर्जेका काम उठाकर दूसरे योग्य जीवों को भी अपने अपने योग्य करनेकी प्रेरणा करते हैं, ये सब फायदे भावापोंके उत्तम शिक्षण और उत्तम चाल चलनपर आधार रखनेवाले होनेसें अपन इच्छेंगे कि भविष्य में होनेवाली अपनी ओल औलादका भला चाहनेवाले मावाप आप खुद उत्तम शिक्षण ऑस कर, उत्तम चालचलन रखकर अपने वाल बच्चांओंके अंतःकरणका शुभ धन्यवाद मिलानेको भाग्यशाली होवेंगे. अस्तु !
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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