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________________ श्रावका गरों पहि पान्नों आरो हुवेज गोकी गल करने लायक फर्ज. श्राव धर्मकी पद्धति प्रणालीका. पूर्व पुण्यके योगसे दश दृष्टातरु५ दुर्लभ मानव भवादिक उत्तम सामग्री पाकर अपना पुरुषार्थ स्फुरायमान करकें परम पवित्र श्री वीतराग प्रणीत धर्ममार्गका जानपना मिलाकर उनका यथाशक्ति सेवन-आराधन कर कृतकृत्य होना यही हरएक अकलमंद श्रावक कुलमें पैदा हुवे भाइयों और भगिनीयों तथा युक्तियुक्त सत्य वार्ताकों केदाग्रह रहित कवुल रखनेवाले निष्पक्षपात बुद्धिवंत मध्यस्थ दृष्टिवंत जनोंकी फर्ज है. अपनी खास फर्जे बजाये विगर आखिरकों अपना छुटका नहीं है; वास्ते हरएक आत्मार्थी जीवोंकों अपनी मुख्य फर्जे जानने की या जानकर बहुत खतके साथ अमलमे लेनेकी जरुरत है. अवलमें तो महा मलीनताजनक रागद्वेष और मोहादिग्रस्त कुदेव गुरु और उन्होंका कथन किया गया कुधर्मका तदन त्याग करनाही योग्य है. उनमें भी कुगुरुको तो काले साँपसें भी अधिक दुःखदायी मानकर त्याग देने चाहिये क्यौ कि काला नाग कदाचित् काटे तो एकही वस्त पाण लता है; लाकन कुगुरुरु५ सांपका मिथ्या उपदेशरुप दंश तो जन्म जन्म फिराकर जन्म म
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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