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________________ “देश की स्वतन्त्रता के समानान्तर संपूर्ण सार्थकता दी और कई वारे तो इनकी रचनायें सिर्फ इसलिये जप्त की गई कि उनमें अंग्रेजों के प्रति तीव्र विरोध शित था। आर्थिक रख-रखाव से दूर इन्होंने सदैव ही दायित्व की क्रियात्मक भूमिका को ही अपनाया और कहते रहे 'मैं कर्म के प्रति निष्ठावान हूँ, कार्य भर कर सकता है-अर्थ (पैसे) से हाथ नहीं लगाता।' और वस्तुत: आज भी इनमें एक दु:ख, इस बात का निरंतर मुखरित होता है कि आज कुछ कांग्रेस-जन अपने सिद्धान्तों की प्रामाणिक-सार्थकता के प्रति पूरी तरह ईमानदार नहीं रहे। __इसी के समानान्तर आगासौद के अपने जीवन क्रम में इन्होंने तारण तरण समाज के विकास के लिये एक सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका भी निभायी और इसके प्रारम्भिक पत्रतारण बन्धु, के प्रकाशन की शुरूयात का सुझाव दिया और काफी समय तक तारण समाज के लिये लिखते रहे। राष्ट्रीयता के प्रति गहरी आस्था और त्याग की निःश्चल भावना इनमें सदैव संचरित रही। प्रत्येक विपय और समस्या पर इनका सामयिक, विशिष्ठ और मौलिक चिन्तन क्रमशः निखरता गया और छूटता गया वह सब कुछ -जो अव्यावहारिक असैद्धान्तिक और अनुपयोगी इन्हें लगा ; ये कांग्रेस के सक्रिय सदस्य वने तो सिर्फ गांधीवादी सिद्धान्तों तक स्वयं को सीनित रखा और उसको वाह्य स्वार्थपरक अभिसंधियों से सदैव दूर रहे 'चाह नहीं चार आने देकर, अपना नाम लिखाऊ मैं ।
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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