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________________ जैनेतर साहित्य में जैन तीर्थंकर साहित्य का क्षेत्र सदैव व्यापक उदात्त और शाश्वत माना गया है । जैनेतर साहित्य में श्रीमद्भागवत का नाम उल्लेखनीय है। इसके पांचवे स्कन्ध के अध्याय २-६ में ऋषभदेव का सुन्दर वर्णन है, जो जैन साहित्य के वर्णन से कुछ अंशों में मिलताजुलता हुआ भी है । उसमें लिखा है कि जब ब्रह्मा ने देखा कि मनुष्य संख्या नहीं बढ़ी तो उसने स्वयंभू मनु और सत्यरूपा को उत्पन्न किया। उनके प्रियव्रत नाम का लड़का हुना । प्रियव्रत का पुत्र अग्नीध्र हुमा । अग्नीध्र के घर नाभि ने जन्म लिया, नाभि ने मरुदेवी से विवाह किया और उनसे ऋपभदेव उत्पन्न हुए । ऋषभदेव ने इन्द्र के द्वारा दी गई जयन्ती नाम की भार्या से सौ पत्र उत्पन्न किये और बड़े पुत्र भरत का राज्याभिषेक करके सन्यास ले लिया । ऋपभदेव ने ही जैन धर्म का उपदेष दिया था। जैन परम्परा श्री ऋषभदेव को अपना प्रथम तीर्थंकर मानती है । और वैष्णव परम्परा श्री ऋषभदेव को आठवें अवतार के रूप में स्वीकार करती है। जिससे इस बात की पुष्टि होती है कि अति प्राचीन काल से ऋषभदेव को हो जैन धर्म के संस्थापक के रूप में माना जाता है।' - - १. सिर्द्धाताचार्य श्री कैलाशचन्द शास्त्री जैन धर्म-पृ० ४-६
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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