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________________ पर अविसंवाद और दिसंबाद निर्भर है। अतः इससे यहा निलो निकलता है कि वह ही बान सत्य था, दूसरे शब्दों में, प्रमाणा हो सकता है जो सम्यक् ही 3 मारमाति तथा हेमचन्द्र के अनुसार तथा अपितवादी हो अकालक के अनुसार, और वस्तु का यथातथ्य चित्रण अथवा यथार्थता की अधात मान में उपयति ही सत्यता की कसौटी है। सत्य की इस कसौटी को यदि मान लिया जाये, तो इसमें कुछ कठिनाइया सामने आती है, जैसा कि कसोटी को मानने वाले पाश्चात्य दार्शनिकों के सामने भी होती रही हैं। बान की यथार्थता से अनुपाता उस तरह नहीं मापी जा सकती, जिस तरह कोई भौतिक वस्तु मापी जाती है। राके अतिरिक्त, कोई 'किसी तव्य का संवादी है। यह कैसे कहा जा सकता है भान तथ्य के अनुशल है यह कहना तभी सार्थक है, जबकि हमें उस तथ्य का, उस शान से, कोई स्वतंत्र पूर्वज्ञान हो चुका हो। लेकिन पान उठता है जिसका पूर्वज्ञान हो चुका हो उसके फिर से ज्ञात होने का क्या औचित्य है' यह तथ्य का ज्ञान होना प्रमाण के अनाधिगताग्राही लक्षण के विरुद्ध है क्योंकि इस लग के अनुसार प्रमाण का कार्य प्रमाणान्तर से अनिीत अर्थ का निर्णय करना होता है। पिर यह कहना कि "पतिलारी हैं तथ्य के साथ संवाद रखता है जो पुनति मात्र है, क्योंकि तथ्य स्पर्ध धात वियों में करते है तथ्य तथा साय एक बारा है। अत: मात्र संघादित्य से प्रत्यक ज्ञान के सत्य की ति नहीं की जा सकती। एक तो शान का पत्तथ्य में संवाद स्थापित करना ही असंभव है, फिर यदि वस्तुतध्य की हमारी धारणा गलत है तो संबाद भी गलत होगा जिसके परिणामस्वल्प मिथ्या भान भीत्य सिद्ध हो जायेगा । कुछ पैन दार्शनिकों ने प्रमाण के तीन लक्षण बताये हैं - अबाधित्व, अध्याभिधारित्व और संगीत। जैसा कि पूर्व-विवेचन से स्पष्ट हो शुका है उस ज्ञान को प्रमाण मानेगे जिस मान की रोष शान से संगति हो। इसका आभाय है कि कुछ
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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