SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है, लेकिन चूंकि सभी ज्ञान की प्रमाण नहीं माने जाते, कालिये यहाँ ज्ञान के "रान" का प्रश्न उठता है । सत्यापित ज्ञान ही प्रमाण है । परीक्षा किस आधार पर की जा सकती है, "सत्य" का क्या अर्थ है, व्याख्या के लिए बैन दार्शनिकों द्वारा सम्यक, अधिसंवादी, स्वपरावभाति, स्वपूवार्यव्यसायी, अनधिगतार्थग्राही और बाधाविति आदि विविध पदों का प्रयोग किया गया है । इन मापदंडों द्वारा ही उन्होंने "सत्य" के स्थल्प को सपन्ट करने का प्रयत्न किया है । areer के इन मापदंडों में आपस में कोई संगति प्रतीत नहीं होती है । यह बात यदि पाश्वात्य-दर्शन में सत्यता के स्वत्प और affart के अध्ययन के सन्दर्भ में जैन-दर्शन की सत्यता और कसौटियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाये तो अधिक स्पष्ट होगी। इसी की पाश्चात्य-दर्शन में मुख्यतः सत्यता की तीन कसौटिया है - संवादिता या अनुकूलता का सिद्धाना | correspondence Theory है, अबाधित अथवा समस्या का साना Icoherence Theory और अर्थक्रियावादी (या उपयोPragmahi Theory 1 30 गितावादी) सित है जो यथार्थ से मेल खाये, are के fear लिना के अनुसार सत्य जो वास्तविकता के अनुष्य हो । इस प्रकार, इस विन्त के अनुसार अनुकूलता की सत्य का लक्ष्ण ही नहीं वरन् सत्यता की कसौटी भी माना गया है । जैनदर्शन सत्यता की इस कसौटी में वहा सहमत प्रतीत होता है जहाँ प्रमाण का लक्षण सम्यक्त्व और अविसंवादित्व माना गया है । सम्यक्त्व को परिभाषित करते हुए आग के ज्ञाताओं ने कहा है सम्यक ज्ञान वह है जो पदार्थको न्यूनतारहित एवं अधिकतारहित ज्यों का त्यों जानता है । इसी प्रकार अक्तिंवादित्व का लक्ष् किया गया है, वह ज्ञान का तथ्य या यथार्थता से विसंवाद न हो, ऐसा ज्ञान जिसमें बाया की पथागत् उपलब्धि हो । बाह्यार्थ की यथावत् प्राप्ति अप्राप्ति
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy