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________________ प्रारम्भ में न समरम्भन में लगाते, सावद्य से वचन योग यती हटाते । होती तभी वचन गुप्ति सुखी बनाती, कैवल्य ज्योति झट मे जब जो जगाती ॥४१३।। प्रारम्भ में न समरम्भन में लगाने, ना काय योग अघ कर्दम में फमाते । यो कायगुप्ति, जङकाय विनागती है, विज्ञान-पक ज-निकाय विकाशती है ।।८१४॥ प्राकार ज्यों नगर की करता सुरक्षा, किवा मुवाड कृषि की करती सुरक्षा । त्यों गप्निया परम पन्च महाव्रतों की, रक्षा मदैव करती मुनि के गुणों की ।। ४१५।। जो गुनियाँ मितियां नित पालते है. मम्यक्तया स्वयम को ऋपि जानते है । वे गीघ्र बोध बल दर्शन धारते है, गंमार मागर किनार निहारते है ।।४१६।। हो भेद ज्ञानमय भानु उदीयमान, मध्यस्थ भाव वश चारित हो प्रमाण । ऐसे चरित्रगुण में पुनि पुष्टि लाने, होते प्रतिक्रमण अादिक ये सयाने ! ॥४१७।। मदध्यान में श्रमण अन्तग्धान होके, रागादिभाव पर हैं पर भाव रोके । वे ही निजातमवशी यति भव्य प्यारे, जाते प्रवश्यक कहे उन कार्य सारे ।।४१८ । [ ८१ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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