SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भाई तुझे यदि आवश्यक पालना है, होके समाहित स्व में मन मारना है । हीराभ सामयिक में द्युति जाग जाती सम्मोह तामस निशा झट भाग जाती ॥४१९॥ जो माधु हो न पडवश्यक पालता है, चारित्र में पतित हो सहता व्यथा है । प्रात्मानुभूति कब हो यह कामना है, पालम्य त्याग पडवश्यक पालना है ॥४२०॥ सामायिकादि पडवश्यक साथ पालें जो साधु निश्चय सुचारित पूर्ण प्यारे व वीतरागमय शुद्धचरित्र धारी, पूजो उन्हें परम उन्नति हो तुम्हारी ॥४२१।। पालोचना नियम प्रादिक मनमान, भाई प्रतिक्रमण शाब्दिक प्रत्यम्यान । स्वाध्याय ये, चरितम्प गये न माने, चारित्र आन्तरिक पात्मिक है सयाने ! ॥४२२।। संवेगधारक यथोचित शक्तिवाले, ध्यानाभिभूत षडवश्यक साधु पाले । ऐसा नहीं यदि बने यह श्रेष्ठ होगा, श्रद्धान तो दृढ़ रखो, द्रत मोक्ष होगा ॥४२३।। सामायिकं जिनप की स्तुति वन्दना हो, कायोतसर्ग समयोचित साधना हो, सच्चा प्रतिक्रमण हो अघप्रत्यख्यान पाले मुनोश षडवश्यक बुद्धिमान ॥४२४॥ [ २ ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy