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________________ गाना सुना गुण गुणा गण पट् पदों का, पीता पराग रम फूल - फलों दलों का । देता परन्तु उनको न कदापि पीडा. होता मुतृप्त करता दिन रैन क्रीड़ा ||४०७॥ दाना यथा विधि यथाबल दान देने, देते बिना दुख उन्हें मुनि दान लेते । यों माधु भी भ्रमर मे मृदुता निभाते, वे एणा समिति पालक है कहाते ॥ ४०८ ॥ उहिष्ट, प्रामुक भले, यदि ग्रन्न लेते, वं माधु, दोष मन में व्रत फेंक देते । उद्दिष्ट भोजन मिले, मुनि शास्त्रानुसार यदि ले, नहि वीतरागी, दोषभागी ॥। ४०९ ॥ " जो देखभाल कर मार्जन पिच्छिका से, शास्त्रादि वस्तु रम्बना गहना दया से । प्रादान निक्षिपण है समिति कहाती, पाले उसे सतत साधु, मुम्बी बनाती ॥ ४१० एकान्त हो विजन विस्तृत ना विरोध, मम्यक् जहाँ बन सके त्रस जीव शोध । ऐसा प्रचित्त थल पे मलमूत्र त्यागे व्युत्सर्गरूप-समिती गह साधु जागे ॥ ४११ ॥ प्रारम्भ में न ममरम्भन में लगाना, संसार के विषय से मन को हटाना । होती तभी मनसगुप्ति सुमुक्ति-दात्री, ऐसा कहें श्रमणश्री जिन शास्त्र शास्त्री ।।४१२७ [ ८० ]
SR No.010235
Book TitleJain Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar Acharya
PublisherRatanchand Bhayji Damoha
Publication Year1978
Total Pages175
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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