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________________ - द्वितीय अध्याय ६३ ऋद्धिलाभ या धनमद न करनेका उपदेश उदयोपशमनिमित्तौ लाभालाभावनित्यको मत्वा । नालाभे वैक्लव्यं न च लाभे विस्मयः कार्यः ॥४५॥ लाभान्तरायकर्मके क्षयोपशमसे अर्थका लाभ होता है और लाभान्तरायकर्मके उदयसे अर्थका अलाभ या धनकी हानि होती है, अतएव लाभ भी नित्य नहीं है और अलाभ भी नित्य नहीं रहनेवाला है, ऐसा मानकर अलाभमें विकल नहीं होना चाहिए और लाभके होनेपर विस्मय ( गर्व ) भी नहीं करना चाहिए ॥४५॥ . बुद्धि या ज्ञानमद नहीं करनेका उपदेश ग्रहणोनाहणनवकृतिविचारणार्थावधारणायेषु । यङ्गविधिविकल्पेष्वनन्तपर्यायवृद्धेषु ॥४६॥ पूर्वपुरुपसिंहानां विज्ञानातिशयसागरानन्त्यम् । . श्रुत्वा साम्प्रतपुरुषाः कथं स्वबुद्धया मदं यान्ति ॥४७॥ ग्रहण, उग्राहण, नवकृति-सर्जन, अर्थ-विचारण और अर्थअवधारण आदि बुद्धि-ऋद्धिके अङ्गभूत विविध भेदोंमें-जो कि परस्परमें अनन्त-पर्यायोंकी वृद्धिको लिये हुए हैं-पूर्व पुरुष सिंहोंकी विज्ञानातिशयताको सुनकर और उनके ज्ञानार्णवकी अनन्तताको जानकर वर्तमानकालके पुरुष कैसे अपनी बुद्धिके मदको प्राप्त होते हैं ? ॥४६-४७॥ विशेषार्थ-अपूर्व या नवीन आगमसूत्र और उनके अर्थको हृदयङ्गम करनेवाली शक्तिको ग्रहण बुद्धि कहते हैं। गृहीत सूत्रार्थ का दूसरेको पढ़ाना उद्ग्राहण कहलाता है। नित्य नवीन ग्रन्थकी रचना करनेको नवकृति-सर्जन कहते हैं। आत्मा, कर्म, बन्ध और
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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