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________________ ६२ जैनधर्मामृत नित्यपरिशीलनीये त्वग्मांसाच्छादिते कलुषपूर्णे | निश्चयविनाशधर्मिणि रूपे मदकारणं किं स्यात् ॥४२॥ माताके रज और पिताके वीर्यसे उत्पन्न हुए, सदैव घटनेबढ़नेवाले, तथा रोग और जरा ( वार्धक्य या जीर्णता ) के आश्रयभूत इस शरीर के सौन्दर्यका अभिमान करने या रूपका गर्व करनेके लिए अवकाश या स्थान ही कहाँ है ? यह शरीर नित्य ही संस्कारके योग्य है, चर्म और मांससे आच्छादित है, विविध जातिके कलुषित - घृणित मलोंसे परिपूर्ण है और नियमसे विनाश-स्वभावी है अर्थात् एक दिन नष्ट होनेवाला है, ऐसे शरीरके रूपमें मद करनेका क्या कारण है ? कुछ भी नहीं है । अतएव रूपका मद भी नहीं करना चाहिए ॥ ४१-४२॥ वलमद न करनेका उपदेश बलसमुदितोऽपि यस्मान्तरः क्षणेन विबलत्वमुपयाति । बलहीनोऽपि च बलवान् संस्कारवशात्पुनर्भवति ॥४३॥ तस्मादनियतभावं बलस्य सम्यग्विभाव्य बुद्धिबलात् । मृत्युबले चावलतां मदं न कुर्याद् बलेनापि ॥ ४४ ॥ यतः बलवान् भी मनुष्य क्षणभरमें बलहीन हो जाता है और बलहीन भी मनुष्य भीतरी शुभकर्मके उदयसे तथा बाहरी उत्तम - खान-पान एवं रसायनादिके सेवनरूप शारीरिक संस्कारसे पुनः बलवान् बन जाता है । अतएव अपने बुद्धिवलसे शारीरिक बलकी अनियतता अर्थात् अस्थिरताको सम्यक् प्रकारसे मृत्युचलके सम्मुख शारीरिक बलकी निर्बलताका मद भी नहीं करना चाहिए ॥४३-४४ ॥ विचार कर, तथा अनुभवकर वलका
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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