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________________ द्वितीय अध्याय • वाणिज्य आदिके सुसम्पादनार्थ को जाय और चाहे किसीके उप रोध या आग्रह, प्रेरणा आदिसे ही की जाय, वह. सम्यग्दर्शनको हानि पहुँचाती ही है। क्योंकि, वस्तु स्थिति यह है कि कोई किसीको कुछ देता नहीं है, मनुष्य अपने किये भले बुरे कर्मका ही फल पाता है । अतः कुदेव, कुगुरुओंकी सेवा सम्यग्दर्शनका घात करती है । दूसरी बात यह है कि इन लोगोंके विषयमें जो कुछ भी सेवा आदि क्रिया की जाती है, वह केवल क्लेश का ही कारण है, उससे फलकी कुछ भी प्राप्ति नहीं होती है। जिस प्रकार .. कोई मुग्ध पुरुष ऊपर भूमिमें खेती करे, तो वह उसके लिए निष्फल और केवल क्लेश-दायकं ही है ॥३२-३३॥ . ... ... .. आठ मद . . . . ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलमृद्धि तपो वपुः । .. . अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः ॥३४॥ . - पुण्योदयसे प्राप्त अपने ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और वपु (शरीर) इन आठोंका आश्रय लेकर अपने उच्चत्व या श्रेष्ठत्वका अभिमान करने और हीनत्वके कारण दूसरोंका अपमान करनेको गर्व-रहित, मार्दवधर्मके धारक, विनयशील · महर्षियोंने स्मय या मद कहा है। ॥३४॥ . . . . . . . विशेषार्थ-जाति-कुलादिका आश्रय लेकर अपनी उच्चता और दूसरेकी नीचता प्रकट करनेको मद कहते हैं। शास्त्रों में मान, मद, दर्प, स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष, आत्मोत्कर्ष, परिभव, स्मय, उसिक्त, तिरस्कार, अहङ्कार और ममकारको मान
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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