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________________ * जैनधर्मामृत ऐहिकाशावशित्वेन कुत्सितो देवतागणः । पूज्यते भक्तितो वाढं सा देवमूढता मता ॥३०॥ मोहरूपी मदिराके पान करनेसे मत्त, विविध वेपके धारक, अन्य मतावलम्बियोंसे परिकल्पित रागी-द्वेषी और कामी, क्रोधी ऐसे ब्रह्मा, उमापति, गोविन्द, शाक्य, चन्द्र और सूर्य आदिकमें आप्तबुद्धि करना अर्थात् उन्हें आत्माका उद्धारक सच्चा देव मानना, सो देवमूढ़ता है । इन कुत्सित देवतागणोंकी लौकिक आशाओंके चशंगत होकर भक्तिके साथ जो विविध प्रकारसे पूजा की जाती है, उसे देवमढ़ता माना गया है ॥२९-३०॥ - ३ पाखण्डिमूढ़ताका स्वरूप सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्त्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखण्डिमोहनम् ॥३॥ जो परिग्रह, आरम्भ और हिंसासे युक्त हैं, संसाररूप समुद्रके भंवर में पड़े हुए डुबकियाँ ले रहे हैं, ऐसे पाखंडी विविध-वेष-धारी गुरुओंका किसी सिद्धि आदि पानेकी अभिलाषासे आदर-सत्कार करना सो पाखंडिमूढ़ता जानना चाहिए ॥३१॥ वरार्थ लोकवार्तार्थमुपरोधार्थमेव वा। उपासनममीपां स्यात्सम्यग्दर्शनहानये ॥३२॥ क्लेशायैव क्रियामीषु न फलावाप्तिकारणम् । यद्भवेन्मुग्धबोधानामूपरे कृषिकर्मवत् ॥३३॥ उक्त प्रकारके इन कुदेव, कुगुरु आदिको उपासना चाहे किसी वर-प्राप्तिके लिए की जाय, चाहे लौकिक असि, मषि, कृषि,
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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