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________________ जैनधर्मामृत सर्वोच्च दशामें पहुँच कर अपने सर्व आन्तरिक विकारोंका अभाव कर परम कैवल्यको प्राप्त कर लेता है, उसे परमात्मा, केवली, जिन, अरहंत, स्वयम्भू , ब्रह्मा, शिव, शंकर आदि नामोंसे पुकारते हैं। परमात्माके इन नामोंका वास्तविक अर्थ क्या है, यह बात इस अध्यायके अन्तमें बतलाई गई है। ___संसारके बहुभाग प्राणी बाहरी पदार्थोके संयोग-वियोगमें इष्टअनिष्टकी कल्पनाकर सुख-दुःखका अनुभव कर रहे हैं। किन्तु बाह्य पदार्थाका संयोग-वियोग हमारे आधीन नहीं है, काँके आधीन है और कर्मोंका उदय सदा एक-सा किसीके रहता नहीं है। जो लोग इस वस्तुस्थितिको नहीं जानकर बाह्य वस्तुओंको ही अपनानेमें संलग्न हैं, उन्हें बहिरात्मा कहा गया है। महर्पियोंने इस बहिरात्मापनको छोड़कर अन्तरात्मा होनेका उपदेश दिया है। वहिरात्म-दशाके दूर होने और अन्तरात्म-दशाके प्रकट होनेपर मनुष्यकी चञ्चल मनोवृत्ति शान्त हो जाती है, पर-पदार्थोंमें इष्टअनिष्टकी कल्पना दूर हो जाती है और यह आत्मा एक अलौकिक आनन्दका अनुभव करने लगता है। ज्यों-ज्यों यह अन्तरात्मा आत्मविकास करता हुआ संकल्प-विकल्पातीत परमात्माका ध्यान करके तद्रप होनेकी भावना करता है, त्यों-त्यों वह परमात्मपदके समीप पहुँचता जाता है और अन्तमें एक दिन वह स्वयं अक्षय अनन्त गुणका स्वामी होकर आत्मासे परमात्मा बन जाता है।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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