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________________ • प्रथम अध्याय : संक्षिप्त सार • सर्वप्रथम धर्मको नमस्कार करते हुए धर्मका स्वरूप बतलाया - गया है और यह निर्देश किया गया है कि धर्मकी प्राप्तिके लिए आत्माका जानना आवश्यक है। उस आत्माके तीन भेद हैंबहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । जिस जीवकी दृष्टि बाहरी - . पदार्थोंमें आसक्त है, बाह्य वस्तुओंको ही अपनी समझता है और शरीरके जन्म-मरणको ही अपना जन्म-मरण मानता है, उसे बहिरात्मा या मिथ्यादृष्टि कहते हैं। जिसको दृष्टि बाहरी पदार्थोसे हटकर अपने आत्माकी ओर रहती है, जिसे स्व-परका विवेक हो जाता है, - जो लौकिक कार्यों में अनासक्त और आत्मिक कार्यों में सावधान रहता है, उसे अन्तरात्मा या सम्यग्दृष्टि कहते हैं। अन्तरात्माके भी तीन भेद हैं । जो व्रत-शील आदि तो कुछ भी नहीं पालन करता, किन्तु - जिसकी मिथ्या दृष्टि दूर हो गई है और जिसे सम्यक दृष्टि प्राप्त हो गई है, ऐसे सम्यक्त्वी या सम्यग्दृष्टिको जघन्य अन्तरात्मा कहते हैं । जो सम्यग्दृष्टि होनेके साथ गृहस्थके उचित व्रत-नियमादिका भी पालन करता है और न्यायपूर्वक धनोपार्जन करते हुए दानपूजादि सत्कार्योंमें उसका सदुपयोग करता है, ऐसे गृहस्थ श्रावकको मध्यम अन्तरात्मा कहते हैं। जो व्यक्ति घर-बारका परित्याग कर • और साधु जीवन अंगीकार करके एकमात्र आत्म-स्वरूपकी साधनामें तत्पर रहता है, वह उत्तम अन्तरात्मा है। जो इस उत्तम अन्तरात्माकी
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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