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________________ जैनधर्मामृत सार ही अपनी इस रचना में निबद्ध कर दिया है । रचना अत्यन्त सरल, सरस एवं वैराग्य भावको उत्पन्न करनेवाली है । इसमें अध्याय आदिका विभाग नहीं है। पूरे ग्रन्थमें ३२८ श्लोक हैं । जैनधर्मामृत के प्रथम अध्यायमें सारसमुच्चयके २ श्लोक संग्रहीत किये गये हैं । सारसमुच्चय-ग्रन्थके अन्तमें ग्रन्थकार ने अपनी कोई प्रशस्ति नहीं दी है, जिससे कि उनके विषयमें कुछ विशेष नाना जा सके | केवल ३२५ वें श्लोकसें अपने नामका उल्लेख अवश्य किया है । वह श्लोक इस प्रकार है-. अयं तु कुलभद्रेण भव विच्छित्तिकारणम् । धो वालस्वभावेन ग्रन्थः सारसमुच्चयः ॥ इस श्लोक ग्रन्थ और ग्रन्थकारके नामके अतिरिक्त और कुछ विशेष परिचय नहीं मिलता है । इसलिए उनके समय आदिके निर्णयके लिए मेरे पास कोई समुचित साधन नहीं है । यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित 'सिद्धान्तसारादिसंग्रह ' में प्रकट हुआ है । इस ग्रन्थका केवल एक श्लोक जैनधर्मामृत के प्रथम अध्याय में संग्रह किया गया है ।
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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