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________________ ग्रन्थ और ग्रन्थकार-परिचय और उपनयोंके स्वरूपका ७६८ श्लोकोंके द्वारा, तथा दूसरे ( अधूरे) अध्यायमें सम्यग्दर्शन और उसके आठों अंगोंका ११४५ श्लोकोंके द्वारा जिस अपूर्व ढंगसे युक्ति-प्रत्युक्तियों के द्वारा पाण्डित्य-पूर्ण विवेचन किया गया है, वह अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता। पं० राजमल्लजी विक्रमकी सतरहवीं शताब्दीके विद्वान् हैं। ये मुग़ल सम्राट अकबरके समयमें हुए हैं, यह बात इनके अन्य ग्रन्थों में दिये गये अपने परिचयसे सिद्ध है। पं० राजमल्लजीने पञ्चाध्यायीके अतिरिक्त लाटी संहिता, जम्बूस्वामिचरित और अध्यात्मकमलमार्तण्ड नामक तीन ग्रन्योंकी और भी रचना संस्कृतमें की है, तथा कुन्दकुन्दाचार्यके समयसारकी अमृतचन्द्राचार्य-रचित आत्म-ख्याति टीकाका आश्रय लेकर उसके कलश-श्लोकोंकी हिन्दी वचनिका भी की है जो अनेक वर्ष पूर्व चन्दाबाड़ी सूरतसे मुद्रित होकर 'जैनमित्र' के उपहारमें दी गई है। . जैनधर्मामृतके दूसरे अध्यायमें पञ्च-परमेष्ठीके स्वरूपवाले ३२ श्लोक पञ्चाध्यायीसे संगृहीत किये गये हैं। पञ्चाध्यायोका एक मूल संस्करण बहुत पहले गान्धी नाथारंगजी ग्रन्थमालासे प्रकाशित हुआ था। पश्चात् इसके दो संस्करण हिन्दी अनुवादके साथ प्रकट हुए हैं, जिनमेंसे एकके अनुवादक पं० मक्खनलालजी शास्त्री और प्रकाशक पं० लालारामजी शास्त्री हैं। यह संस्करण सन् १६१८ में प्रकट हुआ, जो अब अप्राप्य है । दूसरा संस्करण स्व० पं० देवकीनन्दन जी सिद्धान्तशास्त्रीके हिन्दी अनुवादके साथ गणेश वर्णी-ग्रन्थमाला भदैनी वाराणसीसे सन् १९५० में प्रकट हुआ है । इसके सम्पादक पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री हैं। . १७. कुलभद्र और सारसमुच्चय सारसमुच्चयका अध्ययन करनेपर ऐसा प्रतीत होता है मानो इसके रचयिताने अपने सामने उपस्थित वैराग्य-प्रधान प्राकृत-संस्कृत जैन ग्रन्थोंका
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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