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________________ ग्रन्थ और ग्रन्थकार - परिचय ४. व्रत प्रतिमा, पंच अणुव्रतोंका सातिचार वर्णन ५. तीनं गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतका वर्णन ६. श्रावककी दिनचर्याका वर्णन ७. तीसरी से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमाका वर्णन ८. समाधिमरणका विस्तृत विवेचन जैनधर्मामृत के चौथे अध्यायमें सागारधर्मामृतका संग्रह किया गया है । ६६ ५५ ४५ ६१ २५ ११० केवल एक श्लोक पं० श्राशाधरजीने जिनयज्ञकल्प वि० सं० १२८५ में, सागारधर्मटीका १२६६ में और अनगार धर्म-टीका १३०० में समाप्त की है । अनगारधर्मामृत की प्रशस्ति में उन्होंने अपने द्वारा रचे गये प्रायः सभी ग्रन्थों का उल्लेख किया है, इससे ज्ञात होता है कि उनकी रचना वे वि० सं० १३०० के पूर्व ही कर चुके थे। इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि उनका समय विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीका उत्तरार्ध है । सागारधर्मामृत सर्व प्रथम माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से स्वोपज्ञ संस्कृत टीकाके साथ वि० सं० १९७२ में प्रकाशित हुआ है, इसके पश्चात् इसके हिन्दी - मराठी अनुवाद भी विभिन्न संस्थाओंसे प्रकाशित हुए हैं। १४. वामदेव और संस्कृत भाव-संग्रह आ० देवसेनके प्राकृत भावसंग्रहके श्राधारपर पं० वामदेवने अपने संस्कृत भावसंग्रहकी रचना की है। ये अनुमानतः विक्रमकी पन्द्रहवींसोलहवीं शताब्दी के विद्वान् जान पड़ते हैं । इनके द्वारा प्रतिष्ठा सूक्त संग्रह, त्रिलोक दीपिका, श्रुतज्ञानोद्यापन आदि और भी अनेक ग्रन्थ रचे गये सुने जाते हैं, पर जब तक ये ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो जाते, तब तक उनके विषय में निश्चय पूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता । पं० वामदेवका विशेष परिचय 'भावसंग्रहादि की प्रस्तावना में दिया गया है । इस ग्रन्थका प्रकाशन माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई से वि० सं० १९७८ में हुआ है |
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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