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________________ जैनधर्मामृत होने अपने अन्यऔर तेरहवीं श नाये अध्यायम इन्होंने अपने ग्रन्थोंकी रचना की है, अतएव उनका समय विक्रमकी बारहवीं शताब्दीका उत्तरार्ध और तेरहवीं शताब्दीका पूर्वार्ध है। ___ जैनधर्मामृतके पहले दूसरे और चौथे अध्यायमें मैत्री आदि भावनाओंके तथा हिंसादि पापोंके फल-निरूपक २३ श्लोक योगशास्त्रसे संग्रह किये गये हैं। योगशास्त्रका प्रकाशन गुजराती अनुवादके साथ निर्णयसागर प्रेस बम्बईसे सं० १८६६ में हुआ है। इसके अतिरिक्त मूल और हिन्दी अनुवादके साथ अन्य भी अनेक प्रकाशन विभिन्न संस्थाओंसे हुए हैं। १३. आशाधर और सागारधर्मामृत सागारधर्मामृत-सागार अर्थात् गृहस्थका धर्म क्या है, उसे किन-किन व्रतोंका किस रीतिसे पालन करना चाहिए, उसकी दिनचर्या कैसी होनी चाहिए और जीवनके अन्तमें उसे क्या करना चाहिए, आदि बातोंका इस ग्रन्थमें बहुत ही विशद वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थके रचयिता पण्डित-प्रवर आशाधर अपने समयमें एक बहुश्रुत विद्वान् हुए हैं। उन्होंने अपनेसे पूर्ववती समस्त श्रावकाचारोंका मन्थन करके जो अमृत निकाला, वही इस ग्रन्थरूप पात्रमें भर दिया है। पं० आशाधरजीने धर्म, न्याय, साहित्य, वैद्यक आदि विविध विषयोंपर लगभग २० प्रौढ़ ग्रन्योंकी रचना की है। अपने कितने ही ग्रन्थोंकी दुरूहताको अनुभव कर आपने स्वयं ही उनपर स्वोपज्ञ टीकाएँ भी लिखी हैं । ___ सागारधर्मामृतमें आठ अध्याय हैं, जिनका विषय-परिचय और श्लोक-संख्या इस प्रकार हैअध्याय श्लोक-संख्या १. सागार धर्मका सूचनात्मक सामान्य वर्णन २. अष्ट मूलगुण, पूजा-भेद, दान-दत्ति आदि ३. दर्शन-प्रतिमा, सप्त-व्यसन-अतिचार आदि २०
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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