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________________ जैनधर्मामृत १५१ BY देखनेसे ज्ञात होता है कि इसका अाधार मूलाचार रहा है। प्राचारसारमें १२ अधिकार हैं। उनके नाम और श्लोक-संख्या इस प्रकार है____ अधिकार श्लोक-संख्या १. मूलगुणाधिकार २. समाचाराधिकार ९४ ३. दर्शनाचाराधिकार ७५ ४. ज्ञानाचाराधिकार ५. चरित्राचाराधिकार ६. तपाचाराधिकार ७. वीर्याचाराधिकार ८. शुद्ध्यष्टकाधिकार ६. षडावश्यकाधिकार १०१ १०. ध्यानाधिकार ११. नोव-कर्माधिकार १२. दश-धर्म-शीलाधिकार इस ग्रन्थके रचयिता प्रा० वीरनन्दि हैं। ये आ० मेघचन्द्रके शिष्य हैं। वीरनन्दिने अाचारसारके अन्तमें अपने गुरुकी बहुत प्रशंसा की है। एक पद्यसे तो ऐसा प्रतीत होता है कि इनके गुरु गृहस्थाश्रमके पिता भी हैं। श्रवणवेलगोलके शिलालेखोंमें श्रा० वीरनन्दिकी बहुत प्रशंसा की गई है, जिससे विदित होता है कि ये बहुत भारी विद्वान् थे और सिद्धान्तचक्रवर्तीके पदसे भी विभूषित थे। इन्होंने आचारसारके अतिरिक्त अन्य किस ग्रन्यकी रचना की है, यह अभी तक ज्ञात नहीं हो सका है । यद्यपि वीरनन्दिने ग्रन्थके अन्तमें अपना कोई समय नहीं दिया है तथापि जिस ढंगसे उन्होंने अपने गुरुका स्मरण किया है, उससे ज्ञात होता है कि आचारसारकी रचना समाप्त होनेके समय तक उनके गुरु विद्यमान थे। श्रवणवेलगोलके शिलालेख नं० ४७-५० और ५२ से ज्ञात होता है कि ६३ १६० ३३
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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