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________________ चतुर्थ अध्याय १४५ मरणके समय संन्यासका धारण करना ही जीवन भरकी तपस्याका फल है, ऐसा सकलदर्शी योगियोंने कहा है । इसलिए जब तक सामर्थ्य बनी रहे, तब तक समाधिमरणमें अवश्य प्रयत्न करना चाहिए || १२१ ॥ समाधिमरणकी विधि स्नेहं वैरं सङ्ग परिग्रहं चापहाय शुद्धमनाः । स्वजनं परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः ॥१२२॥ भालोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । भारोपयेन्महाव्रतमाभरणस्थायि निःशेषम् ॥ १२३॥ शोक भयमवसादं क्लेदं कालुप्यमरतिमपि हित्वा । सत्त्वोत्साहमुदीर्यं च मनः प्रसाद्य श्रुतैरमृतैः ॥ १२४ ॥ आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्धयेत् पानम् । स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत् क्रमशः ॥। १२५ ।। खरं पाहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या | पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥ १२६ ॥ .. अपने कुटुम्बियों और मित्रोंसे स्नेहको छोड़कर, शत्रुओंसे वैर को छोड़कर, सांसारिक आरम्भ और परिग्रहको भी छोड़कर, शुद्ध मन होकर स्वजन और परिजनों को क्षमाकर, प्रिय वचनों से अपनेको क्षमा करावे । पुनः अपने जीवनमें किये गये सर्व पापोंकी मन, वचन, कायसे और कृत कारित अनुमोदनासे निश्छल भावपूर्वक आलोचना करके मरणपर्यन्त स्थायी रहनेवाले समस्त महाव्रतों को धारण करे । पुनः शोक, भय, विषाद, क्लेद, कलुषता और अरति को भी छोड़कर बल-वीर्य और उत्साहको प्रकट कर अमृतमयी शास्त्रवचनोंसे मनको प्रसन्न करना चाहिए । पुनः खाद्य स्वाद्य और १० - •
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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