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________________ १४४. जैनधर्मामृत: किसी भी प्रकारका राग-द्वेपादि नहीं है, अतः उसके इस कार्यको आत्मघात नहीं कहा जा सकता । करनेवाला आत्मघाती किन्तु कषायपूर्वक प्राणत्याग कहलाता है पृथक् यो हि कपायाविष्टः कुम्भक-जल-धूमकेतु-विप-शस्त्रैः । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः ॥११८॥ जो कषायोंसे अभिनिविष्ट पुरुष श्वास-निरोध, जल-प्रवेश, अग्नि प्रवेश, विष-भक्षण और शस्त्र प्रहारसे अपने प्राणोंको कर देता है, उसके वस्तुतः आत्मघात होता है अर्थात् कषायपूर्वक प्राणत्याग करनेवाला मनुष्य अवश्य ही आत्मघाती है ॥ ११८ ॥ नीयन्तेऽत्र कपाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम् । सल्लेखनामपि ततः प्राहुर हिंसां प्रसिद्ध्यर्थम् ॥ ११६॥ यतः इस संन्यासमरणमें हिंसाके कारणभूत कषाय क्षीण किये जाते हैं, अतः आचार्यांने सल्लेखना को भी अहिंसा की प्रसिद्धि के लिए कहा है ॥ ११९॥ सल्लेखनाका समय और स्वरूप उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥१२०॥ निप्प्रतीकार उपसर्गके, या दुर्भिक्षके, या वृद्धपनाके, अथवा रोगके आजाने पर धर्मकी रक्षाके लिए जो शरीरका त्याग किया जाता है, उसे आर्य पुरुषोंने सल्लेखना कहा है || १२०॥ सल्लेखनाकी आवश्यकता क्यों है ? अन्तःक्रियाधिकरणं तपः फलं सकलदर्शिनः स्तुवते । तस्माद्यावद्विभवं समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ॥ १२१ ॥ :
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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