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________________ १३४ जैनधर्मामृत उस नियत कालमें तत्क्षेत्र-जनित हिंसा-विशेषके त्यागसे विशिष्ट अहिंसाको आश्रय करता है ।।८५॥ ___भावार्थ-देशव्रतमें ली गई क्षेत्र-मर्यादाके बाहर सर्वपापोंकी निवृत्तिसे उस श्रावकके अणुव्रत भी महाव्रतके तुल्य हो जाते हैं। जिनसे अपना कोई प्रयोजन सिद्ध न हो, ऐसे व्यर्थके पापवर्धक कार्योंके करनेको अनर्थदण्ड कहते हैं। उसके पाँच भेद हैं-अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादचर्या, हिंसादान और दुःश्रुति । . यहाँ इनके क्रमसे वर्णन किया जाता है। अपध्यानअनर्थदण्ड पापद्धि-जय-पराजय-संगर-परदार-गमन-चौर्याद्याः। न कदाचनापि चिन्त्याः पापफलं केवलं यस्मात् ॥८६॥ आखेट-गमन, जय-पराजय, युद्ध, परस्त्री-गमन और चोरी आदिका विचार करना अपध्यान अनर्थदण्ड है। इसका किसी भी समय चिन्तवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे केवल पापका ही संचय होता है और कोई लाभ नहीं होता है ।।८६।। पापोपदेश-अनर्थदण्ड विद्यावाणिज्यमपीकृपिसेवाशिल्पजीविनां पुंसाम् । पापोपदेशदानं कदाचिदपि नैव वक्तव्यम् ॥८॥ विद्या, व्यापार, लेखनकला, खेती, सेवा और कारीगरीसे . . जीविका करनेवाले पुरुषोंको पापका उपदेश देना पापोपदेश अनर्थ- .. दण्ड है। अतएव पापका उपदेश कभी भी नहीं देना चाहिए ||७||
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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