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________________ चतुर्थ अध्याय दिग्व्रतसे लाभ इति नियमित दिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो वहिस्तस्य । सकलासंयमविरहाद्भवत्यहिंसात्रतं पूर्णम् ॥८३॥ १३३ इस प्रकार मर्यादा किये गये दिग्विभाग में ही जो गमनागमनादिकी प्रवृत्ति करता है, उसके उस क्षेत्र से बाहरं समस्त असंयमभावके दूर हो जानेसे परिपूर्ण अहिंसात्रत होता है ॥८३॥ भावार्थ - जहाँ तक के क्षेत्रकी मर्यादा की गई है, उससे बाहर समस्त त्रस स्थावर जीवों की हिंसासे निवृत्ति रहती है, इसलिए वहाँ अहिंसाव्रतका पूर्णतः परिपालन होता है । यही दिव्रत धारणका महान् लाभ है । देशव्रतका स्वरूप तत्रापि च परिमाणं ग्रामापणभवनपाटकादीनाम् । प्रविधाय नियतकालं करणीयं विरमणं देशात् ॥ ८४॥ उस दिग्व्रतमें भी ग्राम, बाजार, मन्दिर, मुहल्ला आदिका परिमाण करके मर्यादित क्षेत्र से बाहर जाने-आनेका नियत काल पर्यन्त त्याग करना चाहिए ॥ ८४ ॥ भावार्थ - प्रतिदिन जितने क्षेत्रमें जाने-आने की संभावना हो, उतने क्षेत्रमें जाने-आनेके नियम लेनेको देशव्रत कहते हैं । देशव्रत से लाभ इति विरतो बहुदेशात् तदुत्थ हिंसा विशेषपरिहारात् । तत्कालं विमलमतिः श्रयत्यहिंसां विशेपेण ||५|| इस प्रकार अनावश्यक बहुत क्षेत्रसे विरत निर्मल-बुद्धि श्रावक
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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