SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अध्याय . भावार्थ-जो कोई पुरुष यह कहता है कि मेरे अन्तरङ्ग परिणाम स्वच्छ होना चाहिए, फिर बाह्य परिग्रहादि रखने या वुरा आचरण करनेसे मुझमें कोई दोष नहीं आ सकता, वह अहिंसा के आचरणको नष्ट करता है। क्योंकि बाह्य निमित्तसे अंतरङ्ग परिणाम अशुद्ध होते ही हैं, अतएव एक ही पक्षको ग्रहण न करके निश्चय और व्यवहार दोनों ही अङ्गीकार करना चाहिए । · अविधायापि हि हिंसां हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । .. कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥१५॥ कोई जीव हिंसाको नहीं करके भी हिंसाके फलका भागी होता है और दूसरा हिंसा करके भी हिंसाके फलका भागी नहीं होता ॥१५॥ भावार्थ-जिसके परिणाम हिंसारूप हुए हैं चाहे वह हिंसाका कोई कार्य कर न सके, तो भी वह हिंसाके फलको भोगेगा और जिस जीवके शरीरसे किसी कारण हिंसा हो गई परन्तु परिणामोंमें हिंसक भाव नहीं आया तो वह हिंसाके फलका भागी कदापि नहीं होगा। एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ॥१६॥ किसी जीवके तो की गई थोड़ी सी भी हिंसा उदय कालमें वहुत फलको देती है और किसी जीवके बड़ी भारी भी हिंसा उदय कालमें अल्प फलको देनेवाली होती है ॥१६॥ भावार्थ-जो पुरुष किसी कारणवश वाह्य हिंसा तो थोड़ी कर सका हो परन्तु अपने परिणामोंको हिंसा भावसे अधिक संक्लिष्ट रखनेके कारण ही तीव्र बन्ध कर चुका हो, ऐसे पुरुषके . उसकी
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy