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________________ ११० जैनधर्मामृत पहा फिर भले ही पीछे अन्य जीवोंकी हिंसा होवे, अथवा नहीं होवे ॥११॥ हिंसायामविरमणं हिंसापरिणमनमपि भवति हिंसा । तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥१२॥ हिंसासे विरक्ति न होना और हिंसा रूप परिणमन होना हिंसा ही है इसलिए प्रमत्तयोगके होने पर निरन्तर प्राण-घातका सदभाव है ही ॥१२॥ भावार्थ-जो हिंसाके त्यागी नहीं हैं, वे भले ही हिंसा न करें, किन्तु वे हिंसाके भागी होते ही हैं, क्योंकि उनके प्रमत्तयोग पाया जाता है। सूचमापि न खलु हिंसा परवस्तुनिवन्धना भवति पुंसः । हिंसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ॥१३॥ यद्यपि मनुष्यके सूक्ष्म भी हिंसा पर-वस्तुके निमित्तसे नहीं होती है, तो भी परिणामोंकी विशुद्धिके लिए हिंसाके आयतन आदिका त्याग करना चाहिए ॥१३॥ भावार्थ-यद्यपि रागादि कषाय भावोंका होना ही हिंसा है, पर-वस्तुका इससे कोई सम्बन्ध नहीं है, तथापि रागादिके परिणाम परिग्रहादिके निमित्तसे ही होते हैं, अतएव परिणामोंकी विशुद्धिके लिए परिग्रहादिका परित्याग करना ही चाहिए। निश्चयमबुध्यमानो यो निश्चयतस्तमेव संश्रयते । नाशयति करणचरणं रू बहिःकरणालसो वालः ॥१४॥ जो जीव निश्चय नयके स्वरूपको नहीं जानकर नियमसे उसे ही अंगीकार करता है, वह जीव वाह्य क्रियामें आलसी है और .. अपने चारित्रका नाश करता है ॥१४॥
SR No.010233
Book TitleJain Dharmamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1965
Total Pages177
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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